ध्यान-अभ्यास करने और सत्गुरु की दया के प्रति ग्रहणशीलता का विकास करने से हम अंतर में प्रभु की दिव्य ज्योति और श्रुति का अमृतपान कर सकते हैं। परम पूज्य संत राजिंदर सिंह जी महाराज